नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास-रजत-नग-पगतल में। पीयूष-स्रोत


नारी ! तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास-रजत-नग-पगतल में। पीयूष-स्रोत, सींचित-जीवन, तुम यज्ञ-क्षेत्र की अधिष्ठात्री ।। अम्बर के तारों में बँधकर, महाशून्य में विचरण करती। ममता का आँचल फैलाये, मूर्ति बनी तुम तप करती।। तुम मोह की मूर्त्ति नहीं हो, राग तत्व की विकृति नहीं। प्रेम रूप तुम महासिंधु की, लहरों में आनन्दिनी हो ।। अज्ञेय ! प्रेममय ! स्वरूपिणी! मुक्ति-प्रदायिनी नारी ! तुम हो विश्वकर्मा की वाणी, तुम सत्य-स्वरूपिणी शारदा।। तुम जीवन की कठिन तपस्या, तुम साधना की साधिका। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का तुम ही एकमात्र साधन हो ।। तुम सृष्टि की आदिशक्ति हो, तुम ही नारी-जीवन धारा। तुम शान्ति का स्तम्भ अमर हो, तुम ही आगम की प्रज्ञा हो posyer on this poem
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नारी
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तुम केवल श्रद्धा हो
,
विश्वास-रजत-नग-पगतल में। पीयूष-स्रोत
,
सींचित-जीवन
,
तुम यज्ञ-क्षेत्र की अधिष्ठात्री ।।
अम्बर के तारों में बँधकर
,
महाशून्य में विचरण करती। ममता का आँचल फैलाये
,
मूर्ति बनी तुम तप करती।।
तुम मोह की मूर्त्ति नहीं हो
,
राग तत्व की विकृति नहीं। प्रेम रूप तुम महासिंधु की
,
लहरों में आनन्दिनी हो ।।
अज्ञेय
!
प्रेममय
!
स्वरूपिणी
!
मुक्ति-प्रदायिनी नारी
!
तुम हो विश्वकर्मा की वाणी
,
तुम सत्य-स्वरूपिणी शारदा।।
तुम जीवन की कठिन तपस्या
,
तुम साधना की साधिका। धर्म
,
अर्थ
,
काम
,
मोक्ष का तुम ही एकमात्र साधन हो ।।
तुम सृष्टि की आदिशक्ति हो
,
तुम ही नारी-जीवन धारा। तुम शान्ति का स्तम्भ अमर हो
,
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